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Thursday 25 June 2020

रिव्यू: रहस्‍यमयी मौतों की कहानी है 'बुलबुल'

रेणुका व्‍यावहारे कहानी: 'बुलबुल' की कहानी का प्‍लॉट 19वीं सदी का बंगाल है। बुलबुल (तृप्ति‍ डिमरी) एक ठकुराइन है। उसकी रहस्यमयी लेकिन दमदार छव‍ि है। बुलबुल के मन के भीतर एक तूफान घुमरता रहता है। सत्‍या ठाकुर (अविनाश तिवारी), बुलबुल का हमउम्र है। वह लंदन से लौटता है। गांव का माहौल बदल चुका है। सत्‍या को आशंका होती है क‍ि बुलबुल कुछ छ‍िपा रही है। इस बीच गांव में कुछ अजीब घटनाएं होती हैं। रहस्‍यमई तरीकों से लोगों की मौत का सिलसिला शुरू होता है। इस सब के पीछे एक डायन का हाथ बताया जाता है। लेकिन इन सब के केंद्र में ठाकुर की हवेली भी है। क्‍या इस हवेली में कोई राज छुपा है? रिव्‍यू:'बुलबुल' सिनेमा की कई शैलियों का मिश्रण है। अन्विता दत्त की यह कहानी धीमी गति से बढ़ती है, काल्पनिक नाटक तो है ही, इसमें रहस्‍य की दुनिया भी है। हालांकि, बतौर दर्शक आज कहानी का अनुमान लगा लेते हैं। इसलिए इस बात की उम्मीद न करें कि यह आपको थ्र‍िल करेगी। लेकिन हां, फॉर्म्‍यूला अच्‍छा है। कहानी में लोकगीतों का संदर्भ है। यह कहानी बीते हुए कल और आज का वक्‍त दोनों की बात करती है। कहानी के केंद्र में वही पुराना सवाल है- सही-गलत, अच्‍छा-बुरा, भगवान या असुर क्या ये एक ही सिक्के के दो चेहरे हैं? यदि आप किसी ऐसे थ्र‍िलर की अपेक्षा रखते हैं जो आपको बांधकर रखे, तो थोड़ी निराशा हो सकती है। 'बुलबुल' एक उदास सामाजिक त्रासदी की कहानी है। बेड़‍ियों में जकड़े अस्तित्व, टूटे हुए सपने, खोया हुआ बचपन, प्यार पाने की चाह और वीभत्स यौन और भावनात्मक शोषण। त्रासदी आपको बना या बिगाड़ सकती है। एक फिल्‍म के तौर पर 'बुलबुल' इसी विचार को आगे बढ़ाती है। साथ ही यह उस संस्‍कृति का विरोध करती है, जिसमें महिलाएं एक खामोशी की चादर ओढ़े रखती हैं। फिल्‍म आपको याद दिलाती है कि आप असल में क्‍या कर सकते हैं, एक बार यदि आप निर्णय कर लेते हैं कि अन्याय का बदला लेना है, तो कुछ भी मुमकिन है। हालांकि, फिल्‍म के दौरान लोगों को तड़पता देखना, आपको परेशान करतो है। फिल्म की अपनी एक गति है और वह उसी में आगे बढ़ती है। ऐसे में कई बार आपकी आंखें स्‍क्रीन से अलग हट जाती हैं। फिल्‍म में जब रिश्तों की बात आती है, तब वहां भी आपको कहानी अधूरी सी लगती है। ऐसा लगता है कि बहुत सी बातें अनकही रह गई हैं। फिल्‍म के कैरेक्‍टर्स को समझने के लिए शायद कुछ और बताना समझना जरूरी था। फिल्‍म में रात के सीन्‍स में लाल रंग की रोशनी का खूब इस्‍तेमाल हुआ है। लेकिन यह प्रभावी नहीं लगता। एक पीरियड ड्रामा के लिहाज से फिल्‍म का प्रोडक्शन डिजाइन भी थकाऊ है। फिल्‍म की कहानी में थोड़ी कसावट और होती तो यह बेतहर असर छोड़ती। दूसरी ओर, तृप्ति‍ डिमरी और उनके 'लैला मजनू' को-स्‍टार अविनाश तिवारी इस फिल्‍म में फिर साथ दिखे हैं और यह जोड़ी असर द‍िखाती है। 'लैला मजनू' पूरी तरह अविनाश की फिल्‍म थी, लेकिन 'बुलबुल' तृप्‍त‍ि के कंधों पर टिकी है। उनकी ऐक्‍ट‍िंग में वह दम दिखता भी है। राहुल बोस, पाउली दाम और परमब्रता चट्टोपाध्‍याय भी लीड कैरेक्‍टर की तरह ही प्रमुखता से फिल्‍म को संभालते नजर आते हैं। अमित त्र‍िवेदी ने फिल्‍म में डरावना और भुतहा म्‍यूजिक दिया है, जबकि वीरा कपूर ने कॉस्‍ट्यूम का जिम्‍मा उठाया। दोनों ने ही अपना काम संजीदगी से किया है। 'बुलबुल' की प्रड्यूसर अनुष्‍का शर्मा और कर्णेश शर्मा हैं। इन दोनों की इस मायने में प्रशंसा करनी होगी कि लीक से हटकर एक डार्क हॉरर थ्र‍िलर को इन्‍होंने दर्शकों तक लाने का काम किया है। अन्‍व‍िता दत्त की यह फिल्‍म आपको कई मौकों पर राज कपूर की 'प्रेम रोग' की भी याद दिलाती है। यह फिल्‍म भी समाज में मौजूद कुरीतियों के ख‍िलाफ थी। एक ऐसी व्‍यवस्‍था जो महिलाओं पर पुरुषों के स्वामित्व को द‍िखाती है। यदि आपको यह मानकर चलते हैं कि समानता के लिए महिलाओं की लड़ाई खत्म हो गई है। तो 'बुलबुल' देख‍िए, आप इस पर नए सिरे से विचार करने लगेंगे।


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