'कांटे', 'काबिल', 'शूटआउट एट लोखंडवाला', 'शूटआउट एट वडाला' जैसी गैंगस्टर वाली ऐक्शन प्रधान डार्क और इंटेंस फिल्मों की खासियत रखनेवाले संजय गुप्ता एक बार फिर 'मुंबई सागा' में अपने पुराने अंदाज में दिखाई देते हैं। मुंबई का अंडरवर्ल्ड और उसकी काली दुनिया गुप्ता का पसंदीदा सब्जेक्ट रहा है। यहां भी वे उसी एलिमेंट को भुनाते नजर आते हैं। मुंबई सागा अमर्त्य राव (जॉन अब्राहम) जैसे सब्जी-भाजी की दुकान लगानेवाले एक आम लड़के से गैंगस्टर बनने की कहानी है। फिल्म में 80 के दशक का मुंबई है, जहां पर गायतोंडे (अमोल गुप्ते ) अपने गुंडों के जरिए जेल में बैठकर हफ्ता वसूली का धंधा चलाता है। उसी सिलसिले में एक बार वह जब उसके गुंडे अमर्त्य राव के छोटे भाई अर्जुन (प्रतीक बब्बर) को जान से मारने की कोशिश करते हैं, तब अमर्त्य बदला लेने के लिए हथियार उठा लेता है। गैंगस्टर बनने की राह में अमर्त्य के सर पर हाथ रखता है मुंबई का किंगमेकर भाऊ (महेश मांजरेकर) माफिया, सत्ता, राजनीति और दुश्मनी के इस सफर में गैंगस्टर के रूप में अमर्त्य का कद बढ़ता जाता है। वह काजल अग्रवाल से शादी भी कर लेता है और अपने छोटे भाई अर्जुन को इस खूनी खेल से दूर रखने के लिए लंदन भेज देता है, मगर कहानी में ट्विस्ट तब आता है, जब अमृत्य मुंबई के जाने-माने मिल मालिक खेतान (समीर सोनी) को सरेआम कत्ल कर देता है और वहीं से मुंबई की सत्ता पर काबिज रखने का अमर्त्य का गणित गड़बड़ा जाता है। खेतान की पत्नी (अंजना सुखानी) अपने पति के कातिल को पकड़वाने के लिए उस पर दस करोड़ का ईनाम रख देती है। अब अमर्त्य को गायतोंडे जैसे काइयां दुश्मन का सामना तो करना ही है, साथ ही विजय सावरकर (इमरान हाशमी) जैसे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के वार से भी बचना है। गैंगस्टर और पुलिस की इस लुकाछिपी में किसकी जीत होती है, यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी। निर्देशक संजय गुप्ता चेजिंगऔर कत्ल के रोंगटे खड़े कर देनेवाले दृश्य से फिल्म की शुरुआत करते हैं और फर्स्ट हाफ तक धमाकेदार एक्शन और इमोशन से दृश्कों को बांधे रखने में कामयाब रहते हैं। अपनी फिल्म के किरदारों को उनके लुक, एक्शन और डायलॉगबाजी से लार्जर देन लाइफ बनाना संजय गुप्ता की विशेषता रही है, जिसका निर्वाह उन्होंने यहां भी बखूबी किया है। मगर दिक्कत तब आती है, जब आप पहले भी कई बार देखी हुई कहानी को देखने हैं। गुप्ता की कहानी में नयेपन का अभाव है। सेकंड हाफ में तेजी से बदलते घटनाक्रम कहानी को उलझा देते हैं। क्लाइमेक्स निर्देशक ने अपनी पसंदीदा शैली में रखा है। 'बंदूक से निकली होली न ईद देखती है और न होली', मराठी को जो रोकेगा, मराठी उसे ठोकेगा जैसे संवाद फ्रंटबेंचर्स को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। फिल्म का लुक पूरी तरह से 80 का फील देता है। संगीत की बात करें तो पायल देव के संगीत में देव नेगी का गाया, 'डंका बजा" कहानी को आगे ले जाता है, मगर हनी सिंह की आवाज में 'शोर मचेगा'' अचानक आ जाता है। एक्शन के हाहाकारी दृश्यों के साथ जॉन एक बेरहम गैंगस्टर के किरदार में हर तरह से फिट बैठते हैं। इमरान हाशमी की एंट्री फिल्म में लेट होती है, मगर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अफसर के रूप में वे रंग जमा देते हैं। जॉन और इमरान नहले पर दहला साबित हुए हैं। महेश मांजरेकर किंगमेकर भाऊ के रूप में जंचते हैं, तो अमोल गुप्ते गायतोंडे के रोल में चौंकाते हैं। काजल अग्रवाल और अंजना सुखानी जैसी फीमेल कास्ट को स्क्रीन पर कुछ ज्यादा करने का मौका नहीं दिया गया है। प्रतीक बब्बर, रोहित रॉय, गुलशन ग्रोवर आदि अन्य कलाकरों ने अपनी भूमिकाओं को न्याय दिया है। सुनील शेट्टी मेहमान कलाकर के रूप में आते हैं। क्यों देखें-एक्शन के तगड़े डोज के शौकीन और जॉन अब्राहम और इमरान हाशमी के फैन्स यह फिल्म देख सकते हैं।
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