कहानी पिंकी (अर्जुन कूपर) हरियाणा पुलिस में है, लेकिन सस्पेंड हो गया है। पिंकी एक बैंकर संदीप वालिया (परिणीति चोपड़ा) की उसके ही बॉस से जान बचाता है। दोनों दो अलग-अलग जिंदगी जीने वाले लोग हैं। लेकिन दोनों की जिंदगियां आपस में टकराती हैं। कुछ गुंडे-बदमाश अभी भी संदीप की जान के दुश्मन बने हुए हैं। वह भागती है और साथ में भागता है पिंकी। क्या पिंकी संदीप की जान बचा पाएगा? कहीं पिंकी किसी साजिश में तो शामिल नहीं है? क्या संदीप पिंकी पर भरोसा कर पाएगी? इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढ़ते हुए कहानी आगे बढ़ती है और क्लाइमेक्स तक पहुंचती है। रिव्यू फिल्म के टाइटल की तरह ही, कहानी में भी कई ट्विस्ट हैं। इस कहानी में क्लास डिवाइड यानी समाज में दो वर्गों के विभाजन की मुश्किलें हैं। गहरी चाल है। सस्पेंस भी है और ड्रामा भी। कुल मिलाकर 'संदीप और पिंकी फरार' में हर वह अच्छी बातें हैं जो एक फिल्म को सस्पेंस से भरी डार्क कॉमेडी बना सकती है। लेकिन यह फिल्म इन सभी मानकों पर सतही जान पड़ती है। सबकुछ ऊपर-ऊपर से ही गढ़ा गया है, भीतर कुछ खोखला सा है। फिल्म अपने ओपनिंग सीन से ही आपको स्क्रीन पर नजर बनाए रखने को मजबूर करती है। दिबाकर बनर्जी फिल्म के फर्स्ट हाफ में एक रोचक और रोमांचक कहानी बुनते हैं। फर्स्ट हाफ में दर्शकों को सिर्फ यह दिखाया जाता है कि क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है और क्यों हो रहा है। संदीप वालिया उर्फ सैंडी अपने बॉस से भाग रही है। बॉस उसका पीछा कर रहा है। पिंकेश उर्फ पिंकी लगातार उसे बचाने की कोशिश कर रहा है। थिएटर में सस्पेंस का माहौल है। लेकिन जैसे ही फिल्म अपने सेकेंड हाफ में पहुंचती है, आपको सस्पेंस जैसा कुछ खास अनुभव नहीं होता। जो खुलासे होते हैं, वह रोमांचित नहीं करते। इस नतीजा यह होता है कि फिल्म की गति धीमी पड़ जाती है। कई बातों में दोहराव लगता है। दिबाकर बनर्जी ने फिल्म में हिंदुस्तान के कई रूपों को दिखाने की कोशिश की है। फिर चाहे वह एक गरीब दंपति के बहाने खून चूसने वाले बैंक घोटालों की ही बात क्यों न हो। फिल्म में कई मुद्दों को दिखाने और उन्हें कम से कम छूने की कोशिश की गई है। भारत-नेपाल की सीमा पर एक खूबसूतर शहर के शॉट्स पर भी अनिल मेहता ने खूब मेहनत की है। फिल्म में परफॉर्मेंस की बात करें तो यह परिणीति चोपड़ा की फिल्म है। संदीप उर्फ सैंडी के पास फिल्म में करने के लिए बहुत कुछ है, क्योंकि उसके कैरेक्टर में बहुत लेयर्स हैं। वह एक समय बोल्ड है, साहसी है, लेकिन उसी समय वह खुद को असुरक्षित भी महसूस करती है। डरी हुई भी है। परिणीति ने संदीप के किरदार को निभाने की बखूबी कोशिश की है, जिसके कैरेक्टर को समझना भी अपने आप में दर्शकों के लिए रोमांचक है। हालांकि, अर्जुन कपूर के कैरेक्टर के साथ यह खासियत नजर नहीं आती है। वह अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलते हैं, खासकर क्लाइमेक्स सीन में। लेकिन उनके हिस्से करने को बहुत कुछ नहीं है। फिल्म के दूसरे प्रमुख किरदारों में रघुबीर यादव और नीना गुप्ता मजेदार लगे हैं। वह बिना किसी खास मेहनत के बड़ी आसानी से उन करोड़ों भारतीय दंपतियों का बखूबी प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं। जयदीप अहलावत फिल्म में टॉप कॉप की भूमिका में हैं, लेकिन उनके पास करने के लिए कुछ खास नहीं है। फिल्म में सिर्फ एक ही गाना है, लेकिन उसमें भी अनु मलिक चूक गए हैं। जबकि बैकग्राउंड म्यूजिक भी कोई खास असर नहीं छोड़ता है। कुल मिलाकर 'संदीप और पिंकी फरार’ उन फिल्मों में से है, जो दर्शकों को बांधे रखने का वादा करती है, मंनोरंजन करने के साथ साथ शिक्षित करने की भी बात करती है। सस्पेंस को बरकरार रखते हुए धीरे-धीरे अपनी परतें खोलती है। लेकिन समय से पहले ही फिल्म बिखर जाती है। रफ्तार भी बहुत धीमी है, जो उबाऊ है।
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