से ओतप्रोत फिल्मों की बात हो, तो उसके पूरक के रूप में एक ही नाम आता और वो हैं, भारत कुमार के नाम से जाने जानेवाले लिजेंड कलाकार-निर्माता-निर्देशक का। उन्होंने भारतीय सिनेमा के सौ साल में और आजादी की 75 वीं सालगिरह तक इंडियन सिनेमा को देश प्रेम में डूबी 'शहीद', 'उपकार', 'पूरब और पश्चिम', 'रोटी कपड़ा और मकान' व 'क्रांति' जैसी कई क्लासिक फिल्में दीं। मनोज कुमार वह कलाकार हैं, जो आजादी से पहले बंटवारे की आग में झुलसे हैं और स्वंतत्रता व ब्लैक एंड वाइट सिनेमा से रंगीन चलचित्र के बदलते दौर के साक्षी रहे हैं। आजादी की 75 वीं सालगिरह पर वे सिनेमा के बदलते दौर को अपने संस्मरणों से ताजा करते हैं। भारत अपनी आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है। देशभर में छाई देश भक्ति की लहर के बारे में क्या कहना चाहेंगे?मैं इसे फिल्मों के संदर्भ में कहना चाहूंगा। मुझे लगता है कि देशभक्ति की लहर बहुत ही अच्छी बात है, मगर यह थोपी नहीं जानी चाहिए। आप अगर देशभक्ति की फिल्म बनाते हैं, तो बनाएं और अगर आप उसमें अपना कोई विचार या दृष्टिकोण रखना चाहते हैं, तो बेशक रखें, मगर वह मुंबई से लेकर मेक्सिको तक सभी को प्रभावित करने वाला हो। यह नहीं कि अंधेरी के थिअटर में मीडिया पर्सन ने चार स्टार दे दिए। भारत नाम रखने से आप आजादी के पैरोकार नहीं बन जाते, वह आपकी रगों में होनी चाहिए। देखिए, मैं किसी को अंडर एस्टीमेट नहीं कर रहा। ये मेरी अपनी भावना है। स्वंत्रतता दिवस से जुड़ी आपकी कौन-सी यादें हैं, जो उम्र के 84 वे बसंत में भी आपको याद हैं?15 अगस्त आता है, तो मन एक अनजानी खुशी से भर जाता है, मगर साथ ही दिलो-दिमाग में बंटवारे की त्रासदी के काले-काले नाग मुझे डसने लगते हैं। मैं उस वक्त दस साल का रहा होऊंगा, जब मैंने लाहौर में खून का दरिया देखा। हम घर से बेघर हुए। हमारे खानदान के 60 लोगों को कत्ल कर दिया गया। हमारा सब कुछ बर्बाद हो गया था। बंटवारे का दंश ऐसा है, जिसने दोनों पक्षों को डसा है। हम लाशों के नीचे से दबे-दबाए, कांपते-कांखते हुए दिल्ली आए थे। पूरे चार साल तक हम दिल्ली के रिफ्यूजी कैंप में रहे थे। दिल्ली में ही मेरी पढ़ाई-लिखाई हुई। वहीं के हिंदू कॉलेज से मैंने ग्रेजुएशन किया। आज माहौल बहुत बदल गया है। आज फौज में काम करनेवालों को अपने भारतीय होने का सबूत देना पड़ता है। बहुत दुख होता है। हम फौज के लोगों पर कैसे शक कर सकते हैं? मुझे लगता है, आज देश को एक मजबूत विपक्ष की जरूरत है। अपोजिशन अच्छा काम करेगी, तो सरकार को भी अच्छा काम करना पड़ेगा। इस मौके पर मैं अपनी फिल्म 'शहीद' की वे लाइनें कहना चाहूंगा, 'जब शहीदों की अर्थी उठे धूम से, देश वालों तुम आंसू बहाना नहीं, पर मनाओ जब आजाद भारत का दिन उस घडी तुम हमें भूल जाना नहीं। कितनी विडंबना है कि आजादी की 75वीं सालगिरह के पर हम अश्फाकउल्लाह, खुदीराम बोस, , सुखदेव, मंगल पांडे, सुभाषचंद्र बोस को याद करने के बजाय संसद में मारपीट करते हैं। क्या वह बंटवारे की त्रासदी थी, जिसने आगे चलकर अपने करियर में आपको देशभक्ति और देश के मुद्दों पर आधारित फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया?मैंने आजादी की कीमत चुकाई है। मैंने आजादी को जिया है। मुझे याद है विभाजन से पहले जब हम स्कूल में थे, तभी से बच्चों के जुलूस में भाग लेते और जोर-जोर से नारे लगाते, 'लाल किले से आई आवाज, सहगल ढिल्लन, शाहनवाज' हिंदुस्तानी इतिहास में ‘लाल किला ट्रायल’ के नाम से प्रसिद्ध आजाद हिंद फौज के इस ऐतिहासिक मुकदमे के दौरान उठे नारे ‘लाल किले से आई आवाज-सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़’ ने उस समय मुल्क की आजादी के हक के लिए लड़ रहे लाखों नौजवानों को एक सूत्र में बांध दिया था। वकील भूलाभाई देसाई इस मुकदमे के दौरान जब लाल किले में बहस करते, तो सड़कों पर हजारों नौजवान नारे लगा रहे होते। पूरे देश में देशभक्ति का एक ज्वार सा उठता, तो मैंने अपने बचपन में आजादी को पाने का वो जुनून भी देखा है। विभाजन के बाद दिल्ली के रिफ्यूजी कैंप में भी मेरे वालिद साहब लगातार देश और मुद्दों के लिए काम करते रहे। मेरे आदर्श वही थे। मेरे बाप का सब कुछ लुट गया था, मगर उन्होंने अपना नैशनल करेक्टर कभी नहीं छोड़ा। मैं गर्व से कह सकता हूं कि देशभक्ति मेरी रगों में है और इसी कारण मैं उस तरह का सिनेमा बना पाया। आप जब सन 56 में मुंबई आए, तब यह माया नगरी कैसी थी?मेरे फ़ूफीजात भाई लेखराज भाकरी निर्देशक थे। उन्होंने मुझे देखकर कहा था, तू हीरो लगता है। मेरे संघर्ष के दिन थे। मैं रणजीत स्टूडियो में राइटिंग का काम करता था। उस वक्त मुझे एक सीन के 11 रुपये मिलते थे। हफ्ते में मुझे 5-6 सीन लिखने को मिल जाते और 60-70 रुपए का जुगाड़ हो जाता था। उन दिनों मैं धर्मेंद्र और निर्देशक सोहनलाल कंवर मलाई, सिगरेट और मोसंबी के जूस के खूब मजे से उड़ाया करते थे। दादर से शिवाजी पार्क जाने के ढाई रुपये टैक्सी के लगते थे। एक दिन मुझे पता चला कि निर्देशक रमेश सहगल परेशान घूम रहे हैं। उन्हें अभिनेता अशोक कुमार की डेट्स तो मिल गईं, मगर उन्हें सीन पसंद नहीं आ रहे थे। मैंने जब लिखने की पेशकश की, तो पहले तो उन्होंने हंसी में उड़ा दिया, मगर बाद में उन्हें मजबूरी में मुझसे लिखने को कहना पड़ा। अशोक कुमार को मेरा लिखा हुआ वह सीन इतना ज्यादा पसंद आया कि उन्होंने मुझे शगुन के रूप में 11 रुपए दिए थे। मैंने उनके पैर छुए और मैं बहुत फेमस हो गया था तब। मेरे जिस कजिन भाई लेखराज भाकरी ने मुझसे कहा था कि मैं हीरो मटेरियल हूं, उसी ने 1957 में आई अपनी फिल्म 'फैशन' में मुझे अस्सी साल के बूढ़े भिखारी का रोल दिया। (हंसते हैं) सन 60 में मुझे नायक के रूप में 'कांच की गुड़िया' में मौक़ा मिला और ढाई हजार रुपए मेहनताना। फिर 7 हजार 'पिया मिलन की आस', 11 हजार 'रेशमी रुमाल' और इतनी ही फीस 'हरियाली और रास्ता' के लिए मिली थी। अब तो मैंने सुना है कि कलाकार करोड़ों रुपए एक फिल्म के लेते हैं। 'शहीद' से लेकर 'क्रांति' तक आपने देशभक्ति से जुड़ी कई फिल्में बनाईं, कोई खास याद?जब मैं 'शहीद' बना रहा था, तो उस दौरान मैं भगत सिंह के परिवार से मिलने गया। मुझे पता चला कि उनकी माता विद्यावती जी अस्पताल में भर्ती हैं। भगत सिंह के भाई कुलतार सिंह ने मुझे बताया गया कि वह दवाई नहीं खा रही हैं। मैं उनसे मिला, मैंने उनके पांव छुए, जब डॉक्टर ने कहा कि मैं उनके बेटे भगत सिंह जैसा लगता हूं, तो मुझे देखकर वे बोलीं, 'हां, लगता है, वैसा' उन्होंने मेरे हाथ से दवा खाई। मैं उस वक्त बहुत जज्बाती हो गया था। शहीद को 3 नैशनल अवॉर्ड मिले थे और पुरस्कार समारोह में मैं विद्यावती जी को अपने साथ ले गया था। वहां प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी ने सम्मान में उनके पैर छुए। सभी ने शहीद और विद्यावती जी को स्टैंडिंग ओवेशन दिया था। वह मेरे हिसाब से एक शहीद की मां के लिए गर्व भरा पल रहा होगा। 1965 के इंडिया-पाकिस्तान के युद्ध के बाद मैं प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी से भी मिला और उन्हीं के 'जय जवान जय किसान' नारे से प्रेरित होकर मैंने 'उपकार' बनाई थी। आपको देश और देशभक्ति के मुद्दों पर आधारित किन फिल्मों ने मुतासिर किया?मुझे सबसे ज्यादा 'अ वेडनेसडे' ने प्रभावित किया। लोग 'लगान' को देशभक्ति फिल्म मानते हैं, मगर मुझे लगता है कि वह फिल्म क्रिकेट पर थी। 'रंग दे बसंती' में राकेश मेहरा ने कई मुद्दे उठाए थे, मगर वह भी आधी मेरी 'शहीद' से प्रेरित थी। 'मंगल पांडे' में भी कारतूस के मुद्दे को उठाया गया था।
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