कहानी अरमान गुलाटी (अमोल पाराशर) यंग है। उसके पास आइडियाज की कमी नहीं है। स्टार्टअप में उसे बहुत भरोसा है। पैसे कमाने का जुनून है। हर बिगड़ते काम को जुगाड़ से बना लेता है। हां, ये अलग बात है कि उसके आइडियाज का किस्मत से कनेक्शन ठीक नहीं है। इसलिए उसके बिजनस शुरू होने से पहले बंद हो जाते हैं। इसी बीच आती है नोटबंदी। अरमान के चाचा के पास 500 और 1000 के नोट में 5 करोड़ रुपये हैं। ब्लैक को व्हाइट बनाना है। मनी लॉन्ड्रिंग का खेल शुरू होता है। भागदौड़ शुरू होती है। लड़की की एंट्री होती है। पुलिस और एक बाहुबली पूर्व विधायक की भी कहानी में एंट्री होती है। कहानी एक फन राइड की तरह आगे बढ़ती है और क्लाइमेक्स तक पहुंचती है। रिव्यू प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 को देश में नोटबंदी की घोषणा की थी। हिंदुस्तान के हर कोने में लोगों ने इस दौरान तरह-तरह की समस्याओं का सामना किया। इसका कालेधन पर कितना असर हुआ यह तो पता नहीं, लेकिन आम जनता की सुबह और शाम बैंक के बाहर लाइन में जरूर बीती। लेकिन इसी बीच हम सभी ने अपने आस पास ऐसे लोगों को भी देखा जो अपने कालेधन को किसी न किसी तरह सफेद बनाने के लिए अलग-अलग चोचले अपनाते दिखे। फिर चाहे घर में काम करने वाली बाई के अकाउंट में पैसे डालने हो या फिर कुछ और। फिल्म का हीरो अरमान गुलाटी (अमोल पाराशर) को पैसा कमाना है। उसके स्टार्टअप आइडियाज अक्सर फेल हो जाते हैं। नोटबंदी में उसे समझ आता है कि मनी लॉन्ड्रिंग कर वह कमीशन से पैसे बना सकता है। तेज-तर्रार है, इसलिए वह पैसों को घुमाना जानता है। अब उसके पास 5 करोड़ रुपये हैं, जिसे वह जूलरी शॉप से लेकर रेलवे के टिकट तक हर जगह घुमाता है। जाहिर है, पैसे ज्यादा हैं तो इस चक्कर में भागदौड़ भी ज्यादा होगी। फिल्म में कॉमेडी के साथ एक सस्पेंस भी है कि क्या अरमान पैसों का यह झोलझाल कर पाते हैं, हालांकि इसका पता आपको क्लाइमेक्स में चलता है। डायरेक्टर ऋषभ सेठ पर्दे पर नोटबंदी के बहाने एक ऐसी कॉमेडी फिल्म लेकर आए हैं, जो आपको थकाती नहीं है। औसत मनोरंजन करती है। कहीं-कहीं हंसाती भी है। साथ ही साथ फिल्म के बहाने हमें बहुत से ऐसे तरीकों के बारे में भी जानकारी मिलती है, जिससे कहीं न कहीं नोटबंदी के दौरान कालेधन को सफेद में बदला गया है। फिल्म ओटीटी पर रिलीज हुई है और ऐसी है, जिसे आप रात को डिनर करते हुए फैमिली के साथ देख सकते हैं। फिल्म का कैनवस बहुत बड़ा नहीं है। यह आम जिंदगी जैसी है। वीएफएक्स या बड़े सेट्स की कहानी में गुंजाइश नहीं है। इसलिए यह हल्के-फुल्के अंदाज में आगे बढ़ती रहती है। अमोल पाराशर को हमने हाल ही 'सरदार उधम' में देखा है। 'रॉकेट सिंह' से फिल्मी करियर की शुरुआत करने वाले अमोल पर्दे पर कॉन्फिडेंट दिखते हैं। लेकिन उनमें उस चार्म की कमी दिखती है, जो फिल्म को अपने कंधों पर खींच ले जाए। उनके दोस्त के किरदार में हैं, जो न चाहते हुए भी हर बार उसका साथ देते हैं। कैविन टैलेंटेड ऐक्टर हैं और वह नैचुरल लगे हैं। फिल्म की ऐक्ट्रेस स्मृति कालरा के हिस्से करने को बहुत कुछ नहीं है। स्वानंद किरकिरे और गुलशन ग्रोवर ने भी अपने हिस्से का काम अच्छा ही किया है। फिल्म में ज्यादा गाने नहीं हैं। इसका संगीत आपके साथ नहीं रहता, लेकिन फिल्म के दौरान आपको बोर भी नहीं करता। डायरेक्टर ऋषभ सेठ की कोशिश अच्छी है। लेकिन एक समस्या यह है कि वह जिस दौर की कहानी सुना रहे हैं, उसे 5 साल बीत चुके हैं। ऐसे में शुरुआत में बतौर दर्शक कहानी से कनेक्ट करने में टाइम लगता है। इसका एक कारण यह भी है कि नोटबंदी के बाद देश में कोरोना जैसी महामारी ने लोगों को इस कदर कैद किया कि दौर की परेशानियां अब कम लगने लगी हैं। कुल मिलाकर 'कैश' की अच्छी बात यह है कि यह बोझिल नहीं लगती। हालांकि यह ऐसी भी नहीं है कि 1 घंटे 58 मिनट के बाद इसे याद रखते हैं। फिल्म टाइमपास है और एक बार जरूर देखी जा सकती है।
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